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सिद्धि माता ( वाराणसी )

 

महामहोपाध्याय पंडित गोपीनाथ कविराज

यह बहुत दिनों की बात है । शायद संवत् १९८९ या उसके आसपास का समय होगा । मैं उस समय बड़ादेव मुहल्ले में (सर्वमङ्गला लेन में) रहता था । एक दिन श्री स्वामी शङकरानन्दजी और वीरेश्वर चट्टोपध्याय मुझसे भेंट करने आये । स्वामीजी ने बातचीत के सिलसिले में कहा कि खालिसपुरा मुहल्ले में एक माताजी हैं । उनकी आध्यात्मिक उन्नति और निष्ठा, भक्ति और तन्मयता को वर्तमान समय में अगर असाधारण कहें तो अतिशयोक्ति न होगी । उनके दर्शन कर मैंने वास्तविक साधु दर्शन किये ऐसा मुझे प्रतीत होता है । उनकी इच्छा और आग्रह से मैं उन्हीं के साथ एक दिन माताजी के दर्शन करने गया । वहाँ पहुँचकर जो कुछ मैंने देखा उससे मुझे आश्चर्य और आनन्द दोनों हुए । माँ उस ‌‌समय खालिसपुरा के शिवालय के मकान में रहती थीं । मैंने माँ को एक छोटी-सी कोठरी में एक आसन पर बैठी हुई देखा । सिर से पैर तक लम्बा घूँघट काढ़ा था, इसलिए मुखश्रीदर्शन करने का कोई उपाय न था । हम लोगों के जाने के बाद वे हम लोगों की ओर पीठ करके बैठीं । नवागत दर्शकों के समीप में संकोचवश यथाशक्ति आत्मगोपन करना ही उनका उद्देश्य था, यह समझने में हमें देर नहीं लगी । मुख-दर्शन न देने पर भी हम लोगों के प्रश्नों का उत्तर देने में उन्हें संकोच प्रतीत नहीं हुआ । उनका कण्ठ-स्वर कोमल होने पर भी दृढ़ तथा करुणाव्यञ्जक प्रतीत हुआ । उनके दर्शन पाकर तथा सत्-चर्चा सनकर मुझे अत्यन्त आनन्द हुआ । सरलता, एकाग्रता, अटूट निष्ठा और एकमात्र भगवान् के चिन्तन में सम्पूर्ण जीवन का उत्सर्ग --- यही उनके जीवन की विशेषता थी । उन्होंने भगवद्भक्ति की सहायता से अपने जीवन को सुदृढ़ वैराग्य के ऊपर प्रतिष्ठित किया था ।

इसके उपरान्त अवसर मिलते ही मैं उनके निकट जाता और नाना प्रकार की भगवत्-चर्चाओं की मीमांसा करता था । शास्त्रों की जानकारी न होने पर भी सुदीर्घ कालव्यापी साधना के प्रभाव से भगवत्-तत्त्व के सम्बन्ध में वे पूर्ण-अनुभूति रखती थीं । उस अनुभूति की सहायता से ही वे मेरे सब प्रश्नों का समाधान करने का प्रयत्न करती थीं । भगवान् के सिवा और कुछ न तो वे जानती थीं और न मानती ही थीं । उन्होंने अपने जीवन में प्रत्यक्ष अनुभव कि भगवान् ही उनके पथ प्रदर्शक हैं और भगवान् ही उनके लक्ष्य हैं । वे शास्त्र के उपदेश, महात्माओं की सीख अथवा ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध का अनुशासन कुछ भी न जानती थीं । प्रतिक्षण भगवान् ही उनको प्रेरणा करते । भगवान् थे उनके साथ के संगी, उनके उपदेशक, उनको सान्त्वना देने वाले, उनके बल-भरोसा, उनके ऐश्वर्य, उनके ज्ञान-विज्ञान और उनके सर्वस्व थे । भगवान् उनसे जब जिस तरह से चलने को कहते थे, वे तब उसी तरह चलने की चेष्टा करती थीं । भगवान् उनके एकमात्र इष्ट और गुरु थे ।

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